विश्व के पहले क्रायो-बॉर्न बेबी प्रवाल का ग्रेट बॅरियर रीफ में समावेश:
यह ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक अभूतपूर्व सहयोगात्मक प्रयास का परिणाम है। इस उपलब्धि का लक्ष्य जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए प्रवाल भित्तियों का संरक्षण और पुनर्बहाली करना है।
क्रायो-चॉर्न कोरल के बारे में:
- क्रायो-बॉर्न कोरल: यह प्रवाल क्रायोप्रिजर्वेशन तकनीक का उपयोग करके विकसित किए जाते हैं, जिसमें प्रवाल कोशिकाओं और ऊतकों को बहुत कम तापमान पर फ्रीज किया जाता है।
- क्रायोप्रिजर्वेशन प्रक्रिया:
- प्रवाल कोशिकाओं और ऊतकों में पानी भरा होता है, जो फ्रीजिंग के दौरान बर्फ के क्रिस्टल बना सकता है।
- इस तकनीक में कोशिकाओं से पानी निकालकर और क्रायोप्रोटेक्टेंट्स का उपयोग करके बर्फ के पिघलने पर कोशिका संरचनाओं को सहारा दिया जाता है।
इस सफलता का महत्त्व:
- जलवायु परिवर्तन से निपटना: यह परियोजना अधिक तापमान सहने में सक्षम प्रवालों को रीफ में जोड़ने का प्रयास करती है, ताकि वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बच सकें।
- चयनात्मक प्रजनन:
- प्रवालों का प्रजनन प्राकृतिक रूप से एक वर्ष में केवल एक बार होता है। क्रायोप्रिजर्वेशन से उनके अंडाणु और शुक्राणु संरक्षित किए जा सकते हैं, जिससे भविष्य में प्रवालों का पुनर्निर्माण संभव हो सके।
- यह तकनीक शोधकर्ताओं को प्रवाल कॉलोनियों के साथ चयनात्मक प्रजनन और प्रजनन के लिए अधिक अवसर देती है।
प्रवाल भित्ति (Coral Reef):
- परिभाषा: प्रवाल ऐथोजोआ वर्ग के अकमीरुकी जीव होते हैं, जो छोटे-छोटे पॉलीप्स के रूप में कॉलोनियों के माध्यम से भित्ति बनाते हैं। ये कैल्शियम कार्बोनेट से बनी कठोर संरचनाएँ बनाते हैं और शैवाल (zooxanthellae) पर निर्भर रहते हैं।
- वितरण: ये 30 डिग्री उत्तरी और 30 डिग्री दक्षिणी अक्षांश के बीच, उथले जल में पाई जाती हैं, जहां तापमान 16°C से 32°C के बीच रहता है और सूर्य का प्रकाश पर्याप्त होता है।
- गहराई: आमतौर पर 50 मीटर से कम गहराई पर विकसित होती हैं, जहां अधिक प्रकाश पहुंचता है।
प्रवाल भित्तियों के संरक्षण के प्रयास:
- भारत में प्रयास:
- आर्द्रभूमि, मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों पर राष्ट्रीय समिति (1986): प्रवाल संरक्षण पर सलाह देती है।
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (1986): प्रवाल और रेत के उपयोग पर प्रतिबंध।
- भारतीय प्राणी सर्वेक्षण (ZSI): प्रवाल भित्तियों की पुनर्स्थापना के लिए बायोरॉक तकनीक का उपयोग।
- वैश्विक स्तर पर प्रयास:
- CITES: प्रवाल प्रजातियों को परिशिष्ट-II में सूचीबद्ध करके व्यापार को विनियमित करता है।
- विश्व धरोहर अभिसमय: प्रवाल भित्ति स्थलों को संरक्षण के लिए नामित करता है।
- टारींगा क्रायोडायवर्सिटी बैंक: 32 प्रवाल प्रजातियों के खरबों शुक्राणु 2011 से संग्रहित किए जा रहे हैं।
प्रवाल भित्तियों को खतरे:
- जलवायु परिवर्तन: उच्च तापमान और समुद्री जीवन पर प्रभाव।
- प्रदूषण: समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान।
- कोरल खनन: निर्माण कार्यों के लिए प्रवालों का निष्कर्षण।
- महासागरीय अम्लीकरण: CO2 की वृद्धि से प्रवालों का विकास प्रभावित।
- एक्वेरियम व्यापार: घरेलू एक्वेरियम के लिए कोरल का संग्रह।
- विनाशकारी मछली पकड़ने की प्रथाएँ: प्रवालों के पर्यावासों को नुकसान।
इस सफलता से यह उम्मीद जताई जा रही है कि प्रवाल भित्तियों के संरक्षण में नयी दिशा मिलेगी और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने में मदद मिलेगी।
