सुप्रीम कोर्ट: व्यावसायिक और प्रतिबंधित भाषण मौलिक अधिकार नहीं
भारत के संविधान में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Article 19(1)(a)) नागरिकों को एक मौलिक अधिकार के रूप में प्राप्त है। हालांकि, यह अधिकार पूर्ण नहीं है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि व्यावसायिक और प्रतिबंधित भाषण (Commercial and Prohibited Speeches) मौलिक अधिकारों के दायरे में नहीं आते।
यह टिप्पणी एक सोशल मीडिया कॉमेडियन के खिलाफ चल रहे मामले में सामने आई, जिस पर दिव्यांग लोगों के बारे में असंवेदनशील चुटकुले बनाने का आरोप था।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ
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संरक्षण का अभाव:
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अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत व्यावसायिक विज्ञापन, प्रचार या ऐसे भाषण जो प्रतिबंधित श्रेणी में आते हैं, उन्हें मौलिक अधिकार का संरक्षण नहीं मिलेगा।
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घृणा वाक् (Hate Speech):
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अदालत ने घृणा वाक् को ऐसी अभिव्यक्ति बताया जो धर्म, जाति, नस्ल, जातीयता या पहचान के आधार पर किसी समूह के खिलाफ शत्रुता, घृणा या हिंसा को बढ़ावा देती है।
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ऐसे भाषण लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक सद्भाव के लिए घातक हैं।
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इन्फ्लुएंसर्स की जिम्मेदारी:
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सोशल मीडिया के दौर में बड़ी संख्या में फॉलोअर्स रखने वाले इन्फ्लुएंसर्स और कंटेंट क्रिएटर्स को अपनी अभिव्यक्ति में संवेदनशीलता और जिम्मेदारी दिखानी चाहिए।
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📜 ऑनलाइन कंटेंट विनियमन का कानूनी ढाँचा
1. आईटी अधिनियम, 2000 और इसके संशोधन
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धारा 69A: सरकार को अधिकार है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या सामाजिक शांति के लिए हानिकारक ऑनलाइन सामग्री को सार्वजनिक पहुँच से हटा सके।
2. सिनेमैटोग्राफ अधिनियम, 1952
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यह अधिनियम ऐसे कंटेंट पर रोक लगाता है जो मानहानि, अश्लीलता, घृणा फैलाने या किसी समूह/व्यक्ति की गरिमा को ठेस पहुंचाने वाला हो।
3. आईटी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड) नियम, 2021
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सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स और डिजिटल न्यूज़ मीडिया पर जिम्मेदारी तय करता है।
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यूज़र्स को शिकायत निवारण और रिपोर्टिंग की सुविधा देता है।
🌐 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम जिम्मेदारी
भारत में वाक् स्वतंत्रता एक लोकतांत्रिक आधारशिला है, लेकिन यह पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 19(2) में आठ युक्तिसंगत प्रतिबंध दिए गए हैं, जिनमें शामिल हैं:
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राज्य की सुरक्षा
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सार्वजनिक व्यवस्था
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शालीनता और नैतिकता
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मानहानि
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अपराध के लिए उकसाना
इसलिए, व्यावसायिक विज्ञापन, घृणा वाक्, या संवेदनशील समुदायों पर असंवेदनशील टिप्पणियाँ संविधान के संरक्षण में नहीं आते।
✨ निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह रुख डिजिटल युग के लिए बेहद अहम है। सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर बिना जिम्मेदारी वाली अभिव्यक्ति समाज में असंतोष और भेदभाव फैला सकती है।
👉 यह फैसला स्पष्ट करता है कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी जुड़ी हुई है।
👉 अब इन्फ्लुएंसर्स और कंटेंट क्रिएटर्स को यह समझना होगा कि “अभिव्यक्ति की आज़ादी” का अर्थ किसी की गरिमा को ठेस पहुँचाने की आज़ादी नहीं है।